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विटामिन-सी की कमी से हमारे आरोग्य पर कुछ घातक परिणाम होते हैं क्या?

मानवी शरीर स्वयं ना तो विटामिन-सी तैयार करता है और ना ही उसे इकट्टा/जमा करता है। हमें अपने आहार के माध्यम से ही लेना पड़ता है। इसे यदि दीर्घ कालावधि के लिए (लगभग चार सप्ताह तक) अपने आहार के माध्यम से विटामिन-सी का निश्चित मात्रा में एकत्रिकरण नहीं होता है तो विटामिन-सी की कमी का अहसास होने लगता है। (हो सकता है।)

हमारे नित्यप्रति के आहार में यदि कम कालावधि के लिए विटामिन-सी का सेवन कम मात्रा में हुआ होता है अथवा विटामिन-सी का अभाव होता है तो हमारे शरीर पर उसका कोई भी घातक परिणाम दिखाई नहीं देता हैं। परंतु यदि दीर्घ काल तक (लगभग ४ सप्ताह तक) ऐसा ही चलता रहा तब मात्र विटामिन-सी की कमी दिखाई देते हुए उसका हमारे शरीर पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है।

आहार में विटामिन-सी का कम मात्रा में होने वाला सेवन इसके अतिरिक्त विटामिन-सी की कमी यह कुछ निश्चित परिस्थिती के कारण उपस्थित होती है। जैसे हमारे शरीर में विटामिन-सी की आवश्यकता में वृद्धी निर्माण होने के कारण की यह स्थिति निर्माण हो सकती है। यदि यह विटामिन-सी की आवश्यकता की वृद्धी आहार के माध्यम से पूरी नहीं की गई तो विटामिन-सी की कमी निर्माण हो सकती है। विटामिन-सी की आवश्यकता के अंन्तर्गत निर्माण होने वाली वृद्धी यह किसी विशिष्ठ आरोग्य समस्याओं के कारण भी हो सकती है, जैसे -

* सूजन एवं वेदना बढ़ाने वाली बीमारी (इन्फ्लमेटरीडिसिज) * ज्वर संबंधित बीमारी (तेज बुखार / तीव्रज्वर) * शस्त्रक्रिया के पश्चात्‌ * जलजाने वाले जखम * हायपर थायरॉईडीझम (अतिप्रमाण में सक्रिय हो चुकी थायरॉईडग्रंथी) * लोह की कमी * अति उष्ण अथवा अतिशीत (ठंड) वातावरण में काम करने के कारण शरीरांतर्गत तापमान नियंत्रण प्रणाली में उत्पन्न होने वाला तनाव। * धूम्रपान

विटामिन-सी की कमी के कारण ‘स्कर्व्ही’ नामक एक बीमारी हो जाती है।

विटामिन-सी मानवी शरीर में अकसर जो कार्य करता है, वह कार्य कमतरता की स्थिती में प्रभावी ढ़ंग से नहीं हो पाती है। जिससे अनेक प्रकार की आरोग्य समस्यायें उत्पन्न हो सकती है, जैसे -

* विटामिन-सी हमारे शरीर में एक (सांधणारे) सहयोगी द्रव्य तैयार करने में मदद करता है उदा. कोलेजन। कोलेजन की आवश्यकता शरीर में अग्रीम दी गई बातों के लिए होती है।

१. जखम भरने हेतु २. हड्डींयो के विकास होने हेतु एवं उनका खयाल रखे जाने हेतु ३. दाँतों का एवं (हिरड्यांचे) मसूढ़ों का आरोग्य बनाये रखने हेतु ४. रक्तवाहिनियों की ववस्था सक्षम बनाये रखने हेतु।

* विटामिन-सी की कमी के कारण शरीर में ज़रुरत के अनुसार कोलेजन तैयार नहीं हो पाता है, जिससे जखम जल्द नहीं भर पाता है, दाँतो का ढिला पड़ जाना उन में फाटे पड़ जाना, मसूढ़ों में सूजन आ जाना, मसूढ़ों से रक्तस्त्राव होना, हड्डीयों का कमजोर पड़ जाना साथ ही कमजोर रक्तवाहिनियों में से असामान्य तौर पर रक्तस्त्राव होना, इस प्रकर के लक्षण दिखाई देते हैं। * विटामिन-सी की कमी के कारण रोगप्रातिकारक शक्ती को कमजोर बना देती है, इसे कोई व्यक्ती सर्दि, ज्वर आदि जैसे संसर्गजन्य रोगों से ग्रस्त होने की संभावना बनी रहती है। * विटामिन-सी की कमी कुछ न्युरोट्रांसमीटर्स के (मज्जातंतुओं के पेशीयों का संदेश संवहन करने वाले रसायन) जैविक संश्लेषण पर (बायोसिंथेसिस) परिणाम कर सकते हैं, जिससे स्नायुओं में एवं मज्जातंतुओं में वेदना, उदासीनता, थकान, अस्थिर मनस्थिती इस प्रकार के लक्षण दिखाई दे सकते हैं। * विटामिन-सी की कमी की स्थिती में हीमरहित लोह (नॉन-हीमआर्यन), (वनस्पति स्त्रोतों से उत्पन्न होने वाले लोह) प्रभावित होते हैं (कम होते हैं)। इससे लोह की कमी के कारण रक्तक्षय (ऍनीमिया) की संभावना बढ़ सकती है। * विटामिन-सी यह एक महत्वपूर्ण अँटिऑक्सिडेंट (प्राणवायु के साथ संयोग न होने देने वाला पदार्थ) है, जो नियमित पाचनक्रिया के दरमियान तैयार होने वाले प्रतिरोधी ऑक्सिजन प्रजातियों मुक्त अभारित रेणुओं से तैयार होने वाले हानिकारक रसायनों के प्रभावों को (रद्द्बातल) नष्ट कर सकते हैं उसी प्रकार शरीर जब विविध प्रकार कें तनावों का (रासायनिक, शारीरिक, पर्यावरणीय आदि) सामना करता है, उस वक्त उनके हानिकारक प्रभावों से शरीर का संरक्षण प्रदान करता है। विटामिन-सी की कमी या हानिकारक रेणुओं से मिलने वाले संरक्षण को कम कर सकता है तथा कुछ प्रकार के कर्करोग, हृदयविकार, एलर्जी आदि का जोखिम बढ़ाता है। * विटामिन-सी हमारी आँखों के एवं त्वचा के आरोग्य की सुरक्षा करता है, उसकी कमी के कारण आँखों एवं त्वचा में आने वाले रूखेपन एवं दाह होने की जोखिम बढ़ जाती है। जल्द ही मोतीबिंदू होने की संभावना भी बढ़ जाती है।

यदि दीर्घ काल तक विटामिन-सी का सेवन कम मात्रा में किया गया तो, तो उस विशेष व्यक्ति में उसकी कमतरता निर्माण हो जाती है, परन्तु ऐसे भी कुछ लोग है, जो सामान्य जनता की तुलना में विटामिन-सी की कमी के प्रति अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। जैसे -

* धुम्रपान करने वाले व्यक्ति तथा ऐसे लोग जो धुम्रपान करने वाले लोगों के संपर्क में बारंबार आते हैं (अक्रियधुम्रपान) * शिशु को स्तनपान करने की बजाय गाय का उबाला हुआ दूध पिलाया जाता है। गाय के दूध में मूलत: विटामिन-सी का प्रमाण कम होता है और दूध उबालने पर जो थोड़ा बहुत होता होता है वह भी पूर्णत: नष्ट हो जाता है। * कुछ व्यक्ति जिन्हें पाचनक्रिया से संबंधित समस्याओं को लेकर उसका वैद्यकीय उपचार करवाना पड़ता है, उनके शरीर में भी विटामिन-सी के सोख लेने का कार्य अति कम प्रणाम में होता है।

विटामिन-सी की कमतरता के लक्षण-

१. थकान, अस्थिर मन:स्थिति, उदासीनता २. भूख कम हो जाना ३. स्नायुओं में वेदना उत्पन्न होना, दाह होना ४. त्वचा रूखी एवं निस्तेज होना ५. आँखों में रूखापन आ जाना एवं जलन होना ६. बाल रूखे एवं कमजोर हो जाना, झड़ने लगना ७. मसूढ़ों में सूजन आकर उस में से रक्तस्राव होना ८. दाँत कमजोर होना ९. हड्डीयाँ कमजोर होना (अस्थिसुषिरता, हड्डीयों के टूटने की संभावना बढ़ जाना), हड्डीयों में वेदना उत्पादन होना। १०. जोड़ों का दर्द एवं जोड़ों में सूजन आना ११. त्वचा के नीचे अस्वाभिक रूप में रक्तस्त्राव होता है। १२. बारंबार संसर्ग होना १३. जखम का जल्द न भरना- जखम ठीक होने के लिए काफी समय लगता है अथवा कभी-कभी जखम ठीक ही नहीं होने पाता है, त्वचा सहज ही फटने लगती है। १४. हिमोग्लोबिन कम होना (अनेमिया / रक्ताक्षय)

विटामिन-सी का अतिरिक्त प्रमाण हानिकारक हो सकाता है क्या?

विटामिन-सी का सेवन यदि प्रतिदिन २००० मि.ग्राम प्रतिदिन इस उच्चतम मर्यादा की अपेक्षा अधिक हो जाता है तो आरोग्य पर उसका कुछ न कुछ दुष्परिणाम हो सकता है। विटामिन-सी की यह उच्चतम मर्यादा, नियमित आहार द्वारा दूर करना सच में देखा जाय तो काफी मुश्किल है। यह तभी हो सकता है जब विटामिन-सी युक्त पूरक आहार का अतिरिक्त प्रमाण में सेवन होता है।

यदि विटामिन-सी का अतिरिक्त सेवन कुछ आरोग्य संबंधित समस्याओं से होता है फिर भी वह विटामिन-सी की कमतरता के समान वे समस्यायें इतनी गंभीर नहीं हैं।

अतिरिक्त विटामिन-सी के सेवन के कारण आरोग्य पर होने वाले परिणाम अग्रीम दिए गए प्रकार के हैं- * जीमललाना * उलटी होना * अतिसार * पेट में दर्द * सीने में जलन होना / आम्लपित्त (एसिडिटी) * सिरदर्द * निंद न आना * तीव्र प्रकारों में पथरी की बीमारी

अब हम देखेंगे कि कुछ बीमारियों एवं समस्याओं से बचाव करने के लिए एवं उपचार करने के लिए विटामिन-सी कौन सी भूमिका निभाता है तथा हमारे लिए विटामिन-सी इतना महत्व क्यों रखता है।

बिमारियों पर प्रतिबंध एवं उपचार करने में विटामिन-सी की भूमिका-

* सर्दी से प्रतिबंध-

अपने रोगप्रतिकारक शक्ति की वृद्धि के लिए विटामिन-सी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विटामिन-सी अपने रोगप्रतिकारक शक्ति की क्षमता में सुधार लाता है, जिससे व्हायरल (जिवाणू) संसर्ग का प्रतिकार होकर सर्दी जैसे बारंबार होने वाले उस रोग संक्रमण को प्रतिबंध लगा दिया जाता है, विशेषत: जब मनुष्य को शरीरिक तनावों का सामना करना पड़ता है अथवा पर्यावरणीय परिस्थिती बदलती है (ऋतु में बदलाव आता है)।

* दु:खपात / शस्त्रक्रिया होने के पश्चात जखम का भरना :-

जखम के स्थान पर कोलाजेन (सहायक पदार्थ) तैयार होकर एक साथ इकट्टा होकर, अतिग्रस्त हिस्से को एक प्रकार का दर्द सहने की शक्ति प्राप्त होती है, जो जखम के योग्य उपचारो हेतु आवश्यक होता है। विटामिन-सी इस प्रकार कोलाजेन को तैयार होने के लिए उत्तेजित करता है। इसीलिए जखम के साफ-सफाई पश्चात्‌ अथवा शस्त्रक्रिया पश्चात्‌ जखम भरजाने के लिए काफी मात्रा में विटामिन-सी की आवश्यकता होती है।

* लोह कमतरता एवं ऍनेमिया (रक्ताक्षय) के प्रति प्रतिबंध :-

लोह की कमी के कारण होने वाले ऍनेमिया के प्रतिबंध एवं उपचारों में विटामिन-सी का उपयोग एक सहयोगी पदार्थ (रोग के प्रति दिए गए औषधों की क्रियाशीलता बढ़ाने के लिए दिया गया पदार्थ) के रुप में किया जाता है। हमारे आहार में विटामिन-सी नॉन-हिम आयरन का (हिम रहित लोह) शोषण बढ़ा देता है (शाकाहारी वनस्पतिजन्य स्त्रोतों से उत्पन्न होने वाला लोह) इस प्रकार लोह की कमतरता के कारण होने वाले ऍनिमिया से प्रतिबंध होता ही है।

* पुरुष-वंध्यत्व व्यवस्थापन :-

पुरुषों में पाये जाने वाले वंध्यत्व की व्यवस्थापना हेतु अन्य औषधियों सहित विटामिन-सी का उपयोग भी किया जा सकता है। विटामिन-सी की कमी के कारण ऑक्सिजन प्रजाति (मुक्तअभारित रेणू) जैसे हानिकारक रसायनों का तथा रेणुओं के वीर्य में संचय हो सकता है, जिससे अग्रीम घटनाएँ घटित हो सकती हैं। १. पुरुष पुनरुत्पादनक्षम अवयवों में ऑक्सिडेशन के कारण (शरीर में होने वाले रसायनों का प्राणवायु के साथ होने वाले संयोग के कारण पहुँचचुकी क्षति एवं अवयवों की गिरती हुई स्थिति (डिजेनेरेटिव बदलाव) (टेस्टिज-वृष्ण, एपिडिडिमिस्स-अधिवृषण) २. पुरुषों के लैंगिक हार्मोन के संचय में कमी आती है टेस्टोस्टेरॉन (वृष्ण में तैयार होने वाले लैगिंक विशेषताओं की वृद्धि करने वाले संप्रेरक)। ३. मानवी शुक्रणुओं की गुणक्ता एवं मापदंड के प्रति कमी (घट) विटामिन-सी एक मजबूत अँटिऑक्सीडेंट (प्राणवायु के साथ संयोग करानेवाला पदार्थ) होने के कारण, विषैले रसायन एवं रेणुओं के प्रति (प्रतिरोधी ऑक्सिजन प्रजाती/मुक्तअभारित रेणु) प्रभावों में (हेरा-फेरी) रतबदली कर सकती है तथा पुरुष पुनरुत्पादन समअवयवों पर एवं वीर्यो पर होने वाले विपरीत परिणामों को रोक सकता है, इसीलिए वह पुरुष वंध्यत्व के व्यवस्थापन में आवश्यक है तथा उपयोग में भी लाया जा सकता है।

* हृदयविकार एवं स्ट्रोक (लकवा) से प्रतिबंध :

मानवी शरीर विभिन्न प्रकार के तनावों विरुद्ध सतत लड़ता रहता है। जैसे शारीरिक, रासायनिक, भावनिक, पर्यावरणीय आदि। इसके परिणाम स्वरुप रक्त में हानिकारक रसायनों एवं रेणुओं का, जैसे प्रतिरोधी ऑक्सिजन प्रजातियाँ। मुक्तआभारित रेणुओं का संचय होता है। ये विषैले रेणु यदि व्यवस्थित रूप में निषप्रभावी नहीं किए गए, तो रक्त में होने वाले हानिकारक कोलेस्ट्रॉल के साथ (एलडीएल कोलेस्ट्रॉल) उनकी प्रक्रिया होता है। रक्त में होने वाले हानिकारक कोलेस्ट्रॉल का प्रमाण यदि इन रेणुओं की अपेक्षा अधिक होगा, तो ये रेणु रक्त में कुछ विशिष्ठ बदलाव घटित करवाते है और रक्तवाहिनियों में होने वाले रिक्त स्थानों में (ल्युमेनऑफब्लडवेसल्स), शल्क (प्लाक) तैयार हो जाने के कारण रक्तवाहिनियों में होने वाला स्थान संकरा हो जाता है और रक्त में से प्राणवायु एवं पोषक तत्वों का संवहन कम हो जाने के कारण हृद्यविकार का झटका अथवा लकवा मार जाने की संभावना बढ़ जाती है। विटामिन-सी यह अँटिऑक्सिडेंट होने के कारण, ये मुक्तअभारित रेणु / प्रतिरोधी ऑक्सिजन प्रजातियों की रतबदली (अदल-बदल) कर सकते हैं तथा एलडीएल (हानिकारक) कोलेस्ट्रॉल से रक्तवाहिनियों के रिक्त स्थान में शल्क (प्लाक) तैयार होने की संभावना कम करता है। इस प्रकार से विटामिन-सी, हृदयविकार के झटका आने एवं लकवा मारने से प्रतिबंध लगाने में मदद कर सकता है।

* कैंसर को प्रतिबंध :

विटामिन-सी हमें विविध प्रकार के कैंसर होने से प्रतिबंध लगा सकता है साथ बचा भी सकता है। विटामिन-सी का आहर में पाया जाने वाला उच्च प्रमाण (फल एवं सब्जी-तरकारियों का आहार में अधिक उपयोग) आगे दिए गए कर्करोग होने की जोखिम के प्रति प्रतिबंध लगाने से संबंधित है : अन्ननलिका मुख, पेट, स्वादुपिंड, गर्भाशय, मलाशय, स्तन, फेफंडा, तथा स्वरयंत्र आदि।

जिन प्रस्तुत किए गए कार्यपद्धतियों द्वारा विटामिन-सी कर्करोग का प्रतिबंध लगाने में मदद कर सकती है वे है :-

१. रोगप्रतिकारक शक्ति की गुणवत्ता बढ़ाना / वर्धन करना। २. कर्करोग के रुग्णों में शस्त्रक्रिया पश्चात जखमों को ठीक करने वाले कोलाजेन की निर्मिती को उत्तेजित करना। ३. कर्करोग का संक्रमण (संपूर्ण शरीर में कर्करोग की पेशोयों का प्रसार) होने से लेकर उसे रोकने के लिए, उससे संबंधित एंजाइमसों पर (रसायनों) प्रतिबंध लगाना। ४. जिस कारण से कर्करोग हो सकता है ऐसे जिवाणुओं के संसर्ग से बचाव करना। ५. एक निश्चित प्रमाण में होने वाले विटामिन-सी केमोथेरपी के (रासायनिक संयुगे) मिश्रण का उपयोग करके की गई इस बिमारी की विशिष्ठ प्रकार की चिकित्सा) यह प्रभावी गुणों को बढ़ाता है तथा विषैलेपन को भी कम करत है। ६. विटामिन-सी अँटिऑक्सिडेंट हो्ने के कारण, वह मानवी शरीर पर घातक रसायनों से तथा मुक्तअभारित रेणुओं से होनेवाले हानिकारक परिणामों से बचाव करता है, तथा कुछ कार्सिनोजेन्स को (कर्करोग निर्माण करने वाले पदार्थ) निष्क्रिय भी करता है।

जब शरीर में निश्चित प्रमाण की अपेक्षा से अधिक प्रमाण में विटामिन-सी होता है, उस वक्त वे भिन्न-भिन्न प्रकार की कर्करोग पेशीयों को बढ़ने से रोकती है और इसी कारण कर्करोग की गांठ आकुंचन हो सकती है।

* कर्करोग पर उपचार :-

जब औषधि के तौर पर विटामिन-सी इंजेक्शन के रूप में अतिप्रमाण में दिया जाता है, उस वक्त वह शरीर में जमा रहता है। शरीर के होने वाली विटामिन-सी का यह उच्च प्रमाण उपचार करने हेतु कठिन प्राय: लगने वाले इस कर्करोग की गाँठों के उपचारों में मददगार साबित हो सकती है। विटामिन-सी यदि काफी उच्चप्रामण में उपलब्ध होगा, तो अँटीऑक्सिडंट (प्राणवायु के साथ संयोग न देने वाला पदार्थ) के रुप में भी कार्य कर सकता है। तथा हायड्रोजन पेरोक्साइड (H2O2), एक जंतुनाशक तैयार करता है, जो विशेष तौर पर कर्करोग के पेशीयों हेतु विषैला होता है और वह कर्करोग के गाँठ की पेशीयों को मार सकता है। उस प्रकार से; संशोधकों नुसार विटामिन-सी कर्करोग के उपचारों में उपयुक्त साबित हो सकता है।

* डायबिटीस मेलिटस (मधुमेह) के कारण उत्पन्न होने वाली इन उनझनों पर प्रतिबंध :-

डायबिटिस मेलिटस के (मधुमेह) दोनों ही प्रकारों में (प्रकार-१ तथा २) रक्त में पाये जाने वाले शक्कर का अल्प प्रमाण ये शरीर में होने वाले घातक रसायनों एवं रेणुओं के जैसे ऑक्सीसन प्रजाती एवं मुक्त अभारित मानवी शरीर को ऑक्सेडेटिव तनाव के अन्तर्गत रखते हैं (जिस कारण पेशीयों एवं अतीयें को हानी पहूँच सकती है।) ऑक्सिडेटिव तनाव शरीर में अधिक प्रमाण में दिखाई देने पर, शरीर की रक्तवाहिनियों में हानिकारक बदलाव आ सकता है। विशेषत: मूत्रपिंड, रेटिना (आँख में रहनेवाला पर्दा) हृदय एवं मज्जातंतु। यदि यह तनाव प्रदिर्घ काल तक इसी प्रकार बना रहा, तो इन महत्वपूर्ण अवयवों को क्षति पहुँच सकती है। जिस कारण ये अवयव अकार्यक्षम हो सकते है, जैसे-मूत्रपिंड (डाबेटिक नेफ्रोपॅथी- मधुमेह के कारण होने वाला मूत्रपिंड का विकार) आँखें (डायबेटिक रेटिनोपॅथी- मधुमेह के कारण होने वाला रेटिना का विकार) मज्जातंतू (न्युरोपॅथी-मज्जातंतू की बीमारी) हृदय विकार (हृदय विकार का झटका) जिसकी परिणीती मूत्रपिंड का निष्फल होना (किडनी के फेल्युअर), अंधत्व, हृदय विकार का झटका आदि जैसी धोकादायक परिस्थिति में हो सकती है।

विटामिन-सी यह अँटिऑक्सिडेंट होने के कारण मुक्त अभारित रेणू एवं प्रतिक्रियाशील ऑक्सिजन प्रजातियों का प्रभाव नष्ट करता है और ऑक्सिडेटिव तनाव कम कम करता है। इसी कारण वह मधुमेह के कारण (डायनेटिस मेलिटस) उत्पन्न होने वाली इन उलझनों से (मूत्रपिंड, आँखें, हृदय, मज्जातंतू) प्रतिबंध लगाने में मदद करता है। कुछ संशोधनों के आधार पर तथा अभ्यासों के आधार पर ऐसा नजर आता है कि विटामिन-सी का एक निश्चित प्रमाण में होने वाला स्तर, डायबिटिस मेलिटस के विकास में ये प्रतिबंध लगा सकते है।